करीब 500 साल के लंबे धैर्य, संघर्ष और त्याग के बाद हमारे आराध्य को अपने जन्म स्थान पर भव्य रूप में जगह मिल रही हैं. जिन्हें दुष्ट आक्रमणकारी लुटेरों ने अपने ही घर से निकाल दिया था. अयोध्या में बन रहा भगवान राम का मंदिर एक तरह से हमारी राष्ट्रीय और धार्मिक भावनाओं को पुनर्जीवन मिलने जैसा है. क्योंकि देश के आम लोगों (सनातनी) के जीवन में राम और कृष्ण इस कदर रचे-बसे हैं कि इनके सारे मंदिर नष्ट भी कर दीजिए फिर भी ये लोगों की आत्मा में जिंदा रहेंगे. बात सिर्फ मंदिर बन जाने भर की नहीं है. एक आम हिंदू हमेशा से इस बात की कुंठा में रहा है कि अयोध्या में जिस जगह राममंदिर था उसे तोड़ दिया गया और उसके राम को उस जगह से बेदखल कर दिया गया, जिसे हम सभी बेहद पवित्र स्थान मानकर हजारों साल से पूजते आ रहे थे. पहले हिंदुओं की आस्था को खंडित किया गया फिर उस पर अपने मजहब का रंग चढ़ाकर पूरे इतिहास को मिटाने का कुत्सित प्रयास हुआ. सब कुछ जानते हुए भी इतने सालों से हिंदुओं ने धैर्य से सब बर्दाश्त किया. लेकिन आजादी मिलने के बाद यही वो सपना था जो हर आम सनातनी के दिल में बसा रहा. आजादी के बाद धर्म के नाम पर देश को भी बांट लिया गया. कहने को मुसलमानों को धर्म के नाम पर उनका अपना मुल्क भी मिल गया. लेकिन हिंदुओं के लिए राममंदिर बनाने की जरूरत नहीं समझी गई. क्योंकि आजादी के बाद हमने सेक्युलरिज्म का ठेका ले लिया. हिंदुओं ने इस सेक्युलरिज्म की कीमत अपने आराध्य श्रीराम को टेंट में बिठा कर चुकाई.
हिंदुओं की आस्था पर पहले मुस्लिम आक्रमणकारियों ने किया. अब अपने ही ये काम कर रहे हैं. कोई सत्ता में बैठकर रामलला को काल्पनिक चरित्र बताता रहा. कोई बतौर वकील कोर्ट की सुनवाई में अड़चन डालने की कोशिश करता रहा. कोई कारसेवकों पर गोलियां चलवाता रहा. भगवान राम ने दुष्टों का संहार त्रेतायुग में तो कर दिया. लेकिन कलयुग के दुष्टों से वो कैसे निपटेंगे? क्या कारसेवकों पर उस दिन फायरिंग की जरूरत थी. क्या लाठीचार्ज जैसे उपाय खत्म हो चुके थे? जिस देश में जिसके चरित्र की पूजा की जाती हो, क्या उस देश की सरकार को एक प्रोजेक्ट के लिए उस चरित्र को काल्पनिक बनाने की जरूरत थी?
कैसी विचित्र बात है कि देश में अयोध्या के विवादित ढांचे को गिराए जाने पर बात होती है, लेकिन 1528 में बाबर के सेनापति मीर बाकी द्वारा मंदिर को तोड़े जाने पर कोई बात नहीं करना चाहता. 27 फरवरी 2002 में गोधरा रेलवे स्टेशन के पास साबरमती ट्रेन के कोच में मुस्लिमों की भीड़ द्वारा आग लगाए जाने से 59 कारसेवकों की मौत की बात कोई नहीं करता. लेकिन उसे बाद जो हिंसा फैली उसकी बात सभी करते हैं. उन लोगों को जिन्हें राम मंदिर बनने से दिक्कत है, उन्हें सोचना चाहिए कि अगर हिंदू भी आजादी के बाद अपना धैर्य खो देता तो राममंदिर बनना कितना आसान था. लेकिन हिंदुओं ने ये रास्ता नहीं चुना. आज अगर 330 साल की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद उसे वापस वो जगह मिली है तो दूसरे पक्ष को क्या दिक्कत होनी चाहिए. लेकिन तमाम लोग उसी निर्लज्जता से उस जगह को मस्जिद पर मंदिर बनाने का तोहमत लगाते दिख जाते हैं. ऐसा करते वक्त उतनी ही बेशर्मी से वो इस बात को भूल जाते हैं कि पहले मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी.
(फोटो साभार – श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र के Facebookअकाउंट से)