2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद ऐसा कहा जाने लगा था कि देश में मुस्लिम वोट बैंक की तरह हिंदू वोट बैंक बन चुका है. अब इसका राजनीतिक लक्ष्य भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना है. इसके साथ ही साथ यह भी कहा गया कि अब हिंदू वोट बैंक में सेंध लगा पाना मुश्किल है. इसकी वजह थी कि हिंदुओं की कथित अगड़ी जाति के लोगों के साथ-साथ दलित और ओबीसी ने भारतीय जनता पार्टी को भारी जनसमर्थन दिया. नतीजतन जाति की सियासत में अव्वल यूपी जैसे प्रदेश में कथित पिछड़ी जाति ने अपने समाज के नेताओं ( जैसे मायावती और अखिलेश यादव) को भूल कर एकजुट मतदान किया था. तो आखिर क्या वजह थी कि दो लोकसभा चुनावों में तैयार हुई हिंदुओं की राजनीतिक एकता इस बार के चुनाव में बिखर गई.
विपक्ष का झूठ हिंदुओं की राजनीतिक एकता पर भारी
2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष का ये झूठ हिंदुओं की राजनीतिक एकता पर भारी पड़ा. दलित और ओबीसी समाज के लोगों को विपक्ष का ये झूठ डरा गया कि बीजेपी सत्ता में आई तो आरक्षण खत्म कर दिया जाएगा. इस समाज के लोगों की आंखें अब खुल जानी चाहिए कि बीजेपी अभी सत्ता में आ गई है. क्या इसके बाद अगर उसकी ऐसी मंशा होती क्या वो ऐसा नहीं कर सकती. जबकि गृहमंत्री अमित शाह ने साफ-साफ कहा था कि अगर आरक्षण हटाने की मंशा होती तो वो कब का हट चुका होता. हम 10 साल से सत्ता में पूर्ण बहुमत से हैं.
यूपीए सरकार में उपेक्षा से नाराज था हिंदू समाज
2014 से पहले यूपीए सरकार या फिर उससे पहले देवगौड़ या इंद्र कुमार गुजरात की सरकारों के दौरान हिंदू समाज ने काफी उपेक्षा झेली. कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने तो कोर्ट में हिंदुओं के आराध्य राम के अस्तित्व को नकार दिया. कश्मीर में हिंदुओं पर हमले, पाकिस्तान से आने वाले आतंकवाद की घटनाओं, गौकशी की घटनाओं पर प्रशासन की खामोशी ने हिंदू समाज को एकजुट होने को मजबूर कर दिया. जब 2104 में मोदी बड़ी जीत के साथ सत्ता में आए तो विपक्ष ने इसे हौव्वा बनाया और देश को खतरे में होना घोषित कर दिया. देश में असहिष्णुता बढ़ने का दुस्प्रचार इसी का हिस्सा था. इस बार के चुनाव में विपक्ष इस अफवाह को भुनाने में कामयाब रहा कि तीसरी बार अगर बीजेपी सत्ता में आ गई तो देश का संविधान और खास तौर से आरक्षण व्यवस्था बदल जाएगी. कहा गया कि बीजेपी अगर इस बार जीत गई तो यह देश का आखिरी चुनाव होगा. (तस्वीर साभार – नरेंद्र मोदी फेसबुक पेज से साभार)