एक संत घने जंगल में झोपडी बना कर रहते थे। वे राह से गुजरने वाले पथिकों की सेवा करते और भूखों को भोजन कराया करते थे। एक दिन एक बूढ़ा व्यक्ति उस राह से गुजरा। उन्होंने अपने सेवा नियम के अनुसार उसे विश्राम करने को स्थान दिया और फिर खाने की थाली उसके आगे रख दी। बूढे व्यक्ति ने बिना प्रभु का स्मरण किये भोजन करना प्रारम्भ कर दिया। जब संत ने उन्हें याद दिलाया तो वे बोले – मैं किसी भगवान को नहीं मानता।
यह सुनकर संत को क्रोध आ गया और उन्होंने बूढ़े व्यक्ति के सामने से भोजन की थाली खींचकर उसे भूखा ही विदा कर दिया। फिर उसी रात उन संत को स्वप्न में भगवान ने दर्शन दिए।
भगवान बोले – पुत्र! उस वृद्ध व्यक्ति के साथ तुमने जो व्यव्हार किया, उससे मुझे बहुत दुःख हुआ।
संत ने आश्चर्य से पूछा- प्रभु! मैंने तो ऐसा इसलिए किया कि उसने आपका स्मरण किए बिना ही भोजन प्रारंभ करना चाहा, और मेरे द्वारा ऐसा करने को कहने पर उसने आपके लिए अनादर व्यक्त किया था।
भगवान बोले – क्या तुमने कभी सोचा कि उसने मुझे नहीं माना तो भी मैंने उसे आज तक कभी भूखा नहीं सोने दिया। लेकिन तुम उसे एक दिन का भी भोजन नहीं करा सके। यह सुनकर संत की आँखों में अश्रु आ गए और स्वप्न टूटने के साथ उनकी आँखें भी खुल गयीं।
सत्य तो यही है कि हम सभी जीव भगवान के ही संतान हैं। अगर हमारी यह समझ दृढ़ हो जाए तो हमारी साधना भी सफल हो जाएगी और जीवन भी आसान हो जाए।
ऐसो को उदार जग माहीं!
बिनु सेवा जो द्रवें दीन पर, राम सरिस कोऊ नाहीँ ।