उपासना से ईश्वर की कृपा प्राप्त होकर ज्ञान संपन्नता आ जाती है। और ज्ञान का फल तो भगवतप्राप्ति हो है। अत: आत्मज्ञान होने पर भी स्वयं के प्रयास एवं गहन विचार करने की आवश्यकता होती है, तभी भगवतप्राप्ति होती है; भक्त प्रह्लाद इसके उदाहरण है।
पाताल का राजा हिरण्यकश्यप अतिशय घमंडी था। श्रीविष्णुजी ने नृसिंहावतार लेकर उसका वध किया, इससे अन्य असुर बड़े भयभीत हुए। भगवान विष्णु के वापस जाने के उपरांत प्रह्लाद ने असुरों को उपदेश देकर धीरज बंधा दिया। तदनंतर उसने विचार किया कि देवता अतुल पराक्रमी हैं। उन्होंने मेरे पिता एवं बलाढ्य असुरों को नष्ट किया।
उनपर आक्रमण कर नष्ट हुआ वैभव प्राप्त करना असंभव है, इसलिए उन्हें अब भक्ति से वश करना होगा। नमो नारायणाय का नामजप कर उसने तप करना प्रांरभ किया। यह देखकर सर्व देवता आश्चर्यचकित हुए। इसके पीछे असुरों का कुछ गुप्त कपट होगा, ऐसी शंका उन्होंने श्रीविष्णुजी की से व्यक्त की। श्रीविष्णुजी ने उन्हें समझाया कि बलवान असुर मेरी भक्ति कर अधिक बलवान होते हैं, यह सत्य है; किंतु प्रल्हाद की भक्ति से डरने की आवश्यकता नहीं, उसका यह अंतिम जन्म होगा, क्योंकि वह मोक्षार्थी है।
भक्ति के कारण प्रल्हाद के मन में विवेक, वैराग्य, आनंद जैसे गुण प्रकट हुए और भोग के प्रति आसक्ति नष्ट हुई। भगवान विष्णुने प्रसन्न होकर उसे परमपद पाने का वरदान दिया। ईश्वर के दर्शन से प्रल्हाद का अहंकार नष्ट हुआ। वह शांत, सुखी, और समाधिस्थ हुआ। ऐसी परिस्थिति में अधिक समय बीत गया तो असुरों ने उसे जागृत करने का प्रयास किया। असुरों का कोई भी शासन कर्ता नहीं रहा तो देवताओंको असुरों का भय भी नहीं रहा।
शेषशय्या पर निद्रिस्त श्रीविष्णु जगे और उन्होंने मन में तीनों लोकों की स्थिती का अवलोकन किया और पाया कि दैत्यों का सामर्थ्य अल्प हुआ है और देवता शांत हुए हैं। उन्होंने असुर एवं मानव का द्वेष करना छोड दिया है। ऐसी स्थिति में पृथ्वी पर होने वाले यज्ञयागादि क्रिया बंद हो जाएगी तो भूलोक नष्ट हो जाएगा। इसी कारण प्रह्लाद को सावधान करना होगा। और फिर श्रीहरि पाताल में जा पहुंचे और प्रह्लाद को उसका राज्य एवं शरीर का स्मरण कराया। श्रीविष्णु की आज्ञा के अनुसार प्रह्लाद का राज्याभिषेक हुआ।
भय, क्रोध,कर्मफल से विमुक्त होकर उसने राज्य किया और अंत में परमपद प्राप्त किया।