वृंदावन धाम में श्री बाँकेबिहारी जी मंदिर में बिहारी जी का काले रंग का श्रीविग्रह है। इसके विषय में मान्यता है कि इसमें साक्षात् श्रीकृष्ण और राधाजी समाहित हैं, इसलिए इनके दर्शन मात्र से राधा-कृष्ण के दर्शन के फल की प्राप्ति होती है। इस श्रीविग्रह के प्रकट होने की कथा और लीला बड़ी ही रोचक और अद्भुत है।
संगीत सम्राट तानसेन के गुरु स्वामी हरिदास जी भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त हुए हैं। श्रीहरिदास स्वामी विषय उदासीन वैष्णव थे, इनको सखी ललिताजी का अवतार माना गया है। इनका जन्म संवत 1536 में भाद्रपद महिने के शुक्ल पक्ष में अष्टमी के दिन वृन्दावन के निकट राजपुर नामक गाँव में हूआ था। ये बचपन से ही संसार से ऊबे रहते थे।
किशोरावस्था में इन्होंने स्वामी आशुधीर देव जी से युगल मन्त्र दीक्षा ली तथा यमुनाजी के समीप निकुंज में एकान्त स्थान पर जाकर ध्यान-मग्न रहने लगे। जब ये 25 वर्ष के हुए, तब इन्होंने अपने गुरु जी से विरक्त वेष प्राप्त किया एवं संसार से दूर होकर निकुंज बिहारी जी के नित्य लीलाओं का चिन्तन में लग गये।
स्वामी हरिदास जी वृंदावन में स्थित श्रीकृष्ण की रास-स्थली निधिवन में बैठकर भगवान श्रीकृष्ण को अपने संगीत से रिझाया करते थे। भगवान की भक्ति में डूबकर जब भी गाने बैठते तो प्रभु में ही लीन हो जाते थे। एक बार इनकी भक्ति और गायन से रीझकर भगवान श्रीकृष्ण इनके सामने आ गये, हरिदास जी मंत्रमुग्ध होकर श्रीकृष्ण को दुलार करने लगे। रात्रि में निकुंज वन में ही स्वामी हरिदासजी को बिहारीजी की मूर्ति निकालने का स्वप्नादेश हुआ,
तो उनकी आज्ञानुसार मनोहर श्यामवर्ण छवि वाले श्रीविग्रह को मार्गशीर्ष मास की पंचमी तिथि को धरा की गोद से बाहर निकाला गया। इसलिए हर वर्ष मार्गशीर्ष मास की पंचमी तिथि को बाँकेबिहारी मंदिर में बाँकेबिहारी प्रकटोत्सव मनाया जाता है। यही सुन्दर विग्रह जग में श्रीबाँकेबिहारी जी के नाम से विख्यात है। श्री बाँकेबिहारी जी का यह विग्रह निधिवन में ही बहुत समय तक स्वामी हरिदासजी जी द्वारा सेवित होता रहा। एक दिन प्रातःकाल स्वामी हरिदास जी देखते हैं कि उनके बिस्तर पर कोई रजाई ओढ़कर सो रहा हैं।
यह देखकर स्वामी जी बोले- अरे! मेरे बिस्तर पर कौन सो रहा है। वहाँ श्रीबिहारी जी स्वयं सो रहे थे। शब्द सुनते ही बिहारी जी निकल भागे, किन्तु वे अपने चुड़ा एवं वंशी को विस्तर पर रखकर चले गये। स्वामी जी को वृद्ध अवस्था में दृष्टि जीर्ण होने के कारण कुछ नजर नहीं आया। इसके पश्चात श्री बाँकेबिहारीजी मन्दिर के पुजारी ने जब मन्दिर के कपाट खोले तो उन्हें श्रीबाँकेबिहारी जी के पलने में चुड़ा एवं वंशी नजर नहीं आयी, जबकि मन्दिर का दरवाजा बन्द था। आश्चर्यचकित होकर पुजारी जी निधिवन में स्वामी हरिदास जी के पास आये एवं स्वामी जी को सभी बातें बतायी। स्वामी जी बोले कि प्रातःकाल कोई मेरे पंलग पर सोया हुआ था, और वही जाते वक्त कुछ छोड़ गया है। तब पुजारी जी ने प्रत्यक्ष देखा कि पंलग पर श्रीबाँकेबिहारी जी की चुड़ा- वंशी विराजमान हैं। इससे प्रमाणित हुआ कि श्रीबाँकेबिहारी जी रात को रास करने के लिए निधिवन जाते हैं। फिर तो श्री हरिदास जी को भगवान की लीला का प्रत्यक्ष दर्शन होता रहा।
श्री वृन्दावन धाम में वर्तमान श्रीबाँकेबिहारी मन्दिर का निर्माण स्वामी श्री हरिदास जी के वंश के सामूहिक प्रयास से संवत 1921 के लगभग किया गया। और जब मन्दिर का निर्माण कार्य सम्पन्न हो गया, तब श्री बाँकेबिहारी जी का श्रीविग्रह वहाँ लाकर स्थापित किया गया।